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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान

दाह...


सुनो,
अपने डेविड को ज़रा नीचे उतारो, पत्थर की वेदी से,
नीचे उतारकर, जड़ दो, उसके कोटरों में खूबसूरत युगल आँखें!
कहो, फेंक दे, हाथों में थामे हुए अस्त्र-शस्त्र,
दुश्मन सब दम तोड़ चुके,
हो गए बेनिशान!
अब पोंछ दो भौंहों के बीच की सलवटें,
अब दो कदम चलकर, आने दो मेरे करीब;
मैं उसे चूम लूँ, माइकेल एंजेलो!

जिंदगी की टहनी से झरती जाती है उम्र,
लेकिन अंतस में फूट रहा प्रेम,
मन भला कोई बाँध मानता है...
बाल्टिक में नहीं कोई ज्वार-भाटा,
देखो न,
बैठे हुए उसी के तट पर,
मेरे अंग-अंग में उमड़ रहा ज्वार!

मैंने देश में देखा है, जब सड़क पर आती-जाती थी, लोग मुझे देखते रहते थे। उन सबकी आँखों में अपार मुग्धता होती थी। विदेश में राह चलते हुए मैंने गौर किया है, कोई पलटकर भी नहीं देखता! मैं, जो अपने देश में सुंदर थी, विदेश में सुंदर नहीं समझी जाती। नहीं, मेरी तरफ मुड़-मुड़कर कोई नहीं देखता। जब पुलिस के घेरे में चलती हूँ, तो सब लोग घूर-घूरकर देखते हैं। वे लोग मुझे पहचान जाते हैं या पहचानने की कोशिश करते हैं, लेकिन जब मैं अकेली बाहर निकलती हूँ, साथ में पुलिस नहीं होती। तब कोई-कोई शायद पहचान जाता है, पलटकर देखता भी है, लेकिन ज्यादातर मुड़कर भी नहीं देखते। मैं सुंदर हूँ, इस नज़र से नहीं देखते। रेस्तराँ, कैफे में बैठी होती हूँ, तब उत्सुक मर्द भी अगर किसी वजह से पलटकर देखता भी है तो वह भी मुझे देखकर भी नहीं देखता। अगर मैं कोई अजीबोगरीब कांड न कर बैलूं तब तक। मैं दर्शन की चीज नहीं। शुरू-शुरू में गैवी जब मुझे अपने घर ले जाता था, वह खुद अपने दफ्तर नहीं जाता था। उस वक्त उसकी बीवी दफ्तर में होती थी। घर में, मैं और गैवी बिल्कुल अकेले! मेरा ख्याल था कि गैवी शायद मुझसे इश्क लड़ाना चाहता है, लेकिन बाद में मेरी समझ में आया कि गैवी जैसे बदसूरत के मन में भी ऐसा कोई इरादा नहीं था। राह चलते हुए बहुत से लोग मेरी आँखों को भा जाते थे, लेकिन मैं उन लोगों को छू भी नहीं सकती थी। हाँ, मेरे मन में चाह जागी थी कि मैं बेर्नार्ड हेनरी से प्रेम करूँ, लेकिन मुझ अकेली के चाहने भर से ही तो प्रेम नहीं किया जा सकता। प्यार उसे भी करना होगा। नोरबर्ट प्लम्बेक के साथ तमाम खूबसूरत होटलों में, अगल-बगल के कमरे में रात गुजारते हुए, मेरा बेहद मन होता था कि उसके साथ मेरा प्यार या ऐसा ही कोई नाता जुड़ जाए। कम-से-कम शारीरिक प्रेम ही हो, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मैं जितने सहज भाव से प्यार के लिए अपना तन-मन तैयार रखती हूँ, वे लोग इस हद तक नहीं रखते। बांग्लादेश या भारत में शारीरिक प्रेम बेहद आसान है, लेकिन पश्चिम में बेहद मुश्किल। पहले मैं सुना करती थी कि पश्चिम में कोई भी, किसी के साथ सो जाता है, लेकिन असल में किसी के साथ सोना या सोने का मामला, पश्चिम के लोगों के साथ उतना फिट नहीं बैठता, जितना कि पूर्व के लोगों के साथ! पता नहीं, शायद इसी वजह से कुछ भी नहीं होता। चूंकि मेरे मन की बात मन में ही रह जाती है, इसलिए कुछ घटता भी नहीं। मन की चाह को जिस ढंग से व्यक्त किया जाना चाहिए, उस तरीके से मैं जाहिर नहीं करती या कर नहीं पाती। नोरबर्ट काफी सुदर्शन पुरुष है! उसे मैं मन ही मन चाहती रही। उसे क्या खबर है कि मैं उसे चाहने लगी हूँ? मुझे पक्का विश्वास है कि वह इस बात से बेखबर है। मुझे जो इशारा जानवरों जैसा लगता है, वह इशारा भी नहीं समझता। यही पूर्व व पश्चिम का संस्कृतियों में फर्क है। इसके अलावा नोरबर्ट शादीशुदा शख्स है। जब मैं नोरबर्ट का रूप देखकर मैं उस पर बुरी तरह फिदा हो गई थी, उस वक्त मैं नहीं जानती थी कि वह विवाहित है या कुँवारा! वैसे भी अगर मुझे यह पता भी होता कि वह विवाहित है। तो भी उसके प्रति मेरी दीवानगी में कोई कमी आती, मुझे नहीं लगता। नोरबर्ट के साथ जर्मनी की सैर-तफरीह के बाद, जब मैं जर्मन प्रकाशन, हफमैन एंड कम्पनी के आमंत्रण पर जर्मनी के हमबर्ग नामक शहर में थी, मैंने वहाँ से नोरबर्ट को फोन किया। नोरबर्ट पता नहीं दुनिया के किस प्रांत में था। मेरा फोन पाते ही उसने कहा कि वह कल ही पहुँच रहा है। सिर्फ एक बार मुझे देखने के लिए नोरबर्ट चला आया। मेरे प्राणों में प्यार जाग उठा। मुझे वह रात याद है, जिस रात हम दोनों ने आमने-सामने बैठकर लगभग सारी रात गुज़ार दी। चूँकि मैं पूर्व की लड़की हूँ, इसलिए मैं इंतजार करती रही कि नोरबर्ट की तरफ से ही कोई आमंत्रण आए। हाँ, आमंत्रण पुरुष की तरफ से आए। हम बार में आमने-सामने बैठे रहे। आँखों में आँखें डाले, काफी देर तक हम बैठे रहे। काफी रात तक! मेरी छाती फटती रही मगर जुबान नहीं फूटी। मैं जिस संस्कृति में पली-बढ़ी, बड़ी हुई थी, मैं अपनी जुबान से यह नहीं कह सकी कि, “नोरबर्ट चलो, आज रात हम प्यार करते हुए गुजार दें। चलो, आज मैं तुम्हारे साथ सोना चाहती हूँ।" मर्द की तरफ से आमंत्रण न पाकर, मैंने उसे ही दोष दिया कि उसके दिल में प्यार नहीं है। उस एटलांटिक होटल में ही, मेरी बगल के कमरे में रात गुजारकर नोरबर्ट चला गया।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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